Wednesday 30 March 2011

SHREE SACCHINDANAND VANI

  1. किसी को पुकारो नहीं ,किसी को दुत्कारो नहीं ,किसी को ललकारो नहीं.
  2. नासमझों पर क्रोध कर के अपना खून जलाने से क्या फायदा.
  3. साकार न होने पर भी ,सगुण न होने पर भी गुरु के दिए गुरुमंत्र  के प्रति सघन श्रद्धा और अडिग विश्वास ,वो मिले न मिले,नित्य मंत्र का जाप ,गहरी आस्था के साथ करते रहो.
  4. "मौन से बड़ा संभाषण नहीं, मुस्कान से बड़ा कोई हथियार नहीं,क्षमा से बड़ी शक्ति नहीं."
  5. सम्पूर्ण वैभव के साथ विवेक की वल्गा (लगाम) हाथ में अवश्य हो.
  6. सत्य परेशान हो सकता है परास्त नहीं.
  7. सब को स्नेह दान दो.
  8. प्रेम का बीज डाल दिया गया है,सिंचन तो स्वयं  ही करना है.
  9. वह भाव ही क्या जो केवल स्वयं  के बारे में सोंचे - समक्ष बैठे प्रिय के प्रति ,उसके हित के प्रति समर्पित न हो.
  10. गुरु के प्रति निर्भरता से निर्भयता आती है.
  11. विनय श्रेष्ठता का अभेद्य द्वार है.
  12. हमारा जीवन वैसा ही होता है जैसा हमारा चिंतन.
  13. पूर्णता की प्राप्ति पात्रता एवं नम्रता से होती है.
  14. साहस की परिधि में सत्य की आत्मा जीवित रहती है.
  15. संतोष प्राकृतिक सम्पदा है.
  16. जीह्वा के फिसलने से पाँव का फिसलना ज्यादा अच्छा  है.
  17. ज्ञान निर्देशित और प्रेम प्रेरित जीवन ही अच्छा जीवन है.
  18. झरोखा जितना खोलोगे उतना ही प्रकाश मिलेगा.
  19. तीन वस्तुओं की अति नहीं होती- दान, जप,और ज्ञान.
  20. गुरु ही मार्ग,गुरु ही मंजिल,गुरु साधना ,गुरु साधन, गुरु ही साध्य.गुरु ध्यान ,गुरु ध्यातव्य गुरु ही ध्येय हैं.
  21. ज्ञान के महासागर में डूबकर जब कोई अबोध सरल शिशु की तरह मेरी  बाट जोहता है तब मैं भिन्न -भिन्न रूपों में आकर उसे अपने अंक में समेट कर चलता हूँ.


  22. तुमतो बहती धारा हो न- वो कब ठहरकर इतिहास के पन्नों में ,ख़ुशी और गम के काले
  23. अक्षरों में उलझती है?कोई भी कार्य गलत नहीं है, यदि उसका उद्देश्य गलत न हो.
  24. कोटि- कोटि  जप और भाव से समर्पित एक तृण - मेरे लिए भाव का वह तृण ही अभीष्ट है.  
                                                                                      -सृष्टि  के  आद्यगुरु .

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